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पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया
अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया
हम मुन्तजिर थे शाम से सूरज के दोस्तो
लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया
गाँव को छोड़कर तो चले आए शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया
किससे पनाह माँगें कहाँ जाएँ, क्या करें
फिर आफताब रात का घूँघट उलट गया
सैलाबे-नूर में जो रहा मुझसे दूर-दूर
वो शख्स फिर अँधेरे में मुझसे लिपट गया
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